कारगिल के बाद ....खुद बढ़कर प्रहार करो ...........
वही पुराना आत्मसमर्पण फिर से करवाना होगा
समरभूमि की गौरवगाथा को फिर दोहराना होगा
जीती हुई जीत को अबकी बार न लौटाना होगा
रणभूमि को बलि चढानी होगी शत्रु के सर से
नाश समूल न हो तब तक नहीं रक्त रिक्त हो खप्पर से
निमिष- निमिष होगी बरसानी आग धधकते अम्बर से
धारण कर लो चक्र सुदर्शन कह दो यह मुरलीधर से
हुक्म मिले तो अपनी सेना सब कर के दिखला देगी
दुश्मन की सेना के नाकों में नकेल डलवा देगी
बूँद बूँद का बदला लेकर धरती लाल बना देगी
दुश्मन देश का इस धरती से, नामों निशाँ मिटा देगी
यह विश्वास दिखाना है दिल्ली बैठे आकाओं ने
खुद बढ़कर प्रहार करो स्वर गूंजा सभी दिशाओं में
घनश्याम वशिष्ठ
कब तक संयम रक्खेंगे रहकर अपनी सीमाओं में
कब तक रहें नियंत्रित सरहद पर खींची रेखाओं में
सब्र का प्याला छलक गया लहु लावा हुआ शिराओं में
खुद बढ़कर प्रहार करो स्वर गूंजा सभी दिशाओं में
उनसे पूछो जिसनें अपना लाल देश पर खोया है
सीना गौरव से फूला पर दिल अन्दर से रोया है
जिसने निज सौभाग्य चिन्ह कुमकुम केशों से धोया है
सूनी मांग सुहाग सामने चिर निंद्रा में सोया है
तार- तार होकर सिंगार सब गिरे ज़मीं पर टूट गए
सूनी आँखों के स्वप्निल पल पथ में पीछे छुट गए
काल चक्र के चोर स्नेह के तार रेश्मीं लूट गए
पकड़ कलाई बहना कहती, भइया मुझ से रूठ गए
जिस धरती ने हरियाली खुशहाली जन जन में बांटी
उसकी छाती उसके ही बेटों की लाशों से पाटी
इतनी भारी कीमत देकर बचा सके केवल घाटी
इतने पर संतोष किया तो हों गयी शर्मिन्दा माटी
फडकन को महसूस करो थामें संगीन भुजाओं में
खुद बढ़कर प्रहार करो स्वर गूंजा सभी दिशाओं में
जो सरहद पर गिरा खून वह खून हमारा अपना था
पथ पर बाट जोहती सिन्दूरी आँखों का सपना था
दो बूढ़े नयनों की ज्योति एक दिन उसको बनना था
भाई डोली बिदा करे क्या यह बहना का मन ना था
भुला सकेगी पगडंडी क्या चूमें थे जो पांव कभी
पेढों ने दी थी बचपन को संरक्षण की छांव कभी
ताल के उर पर बैठा था जो ले कागज़ की नाँव कभी
बचपन वो मासूम भुला पायेगा कैसे गाँव कभी
फिर भी छलके अश्क नहीं यह भी तो एक कुर्बानी है
सीनों पर पत्थर रखनें वालों नें हार न मानी है
पूत सभी न्योछावर धरती पर यह मन में ठानी है
पर रक्षा तक नहीं जीत कुछ और जीतकर लानी है
पूत जीत दुश्मन की धरती माँ बैठी आशाओं में
खुद बढ़कर प्रहार करो स्वर गूंजा सभी दिशाओं में
बीते हुए काल को फिर से लौटा कर लाना होगाजो सरहद पर गिरा खून वह खून हमारा अपना था
पथ पर बाट जोहती सिन्दूरी आँखों का सपना था
दो बूढ़े नयनों की ज्योति एक दिन उसको बनना था
भाई डोली बिदा करे क्या यह बहना का मन ना था
भुला सकेगी पगडंडी क्या चूमें थे जो पांव कभी
पेढों ने दी थी बचपन को संरक्षण की छांव कभी
ताल के उर पर बैठा था जो ले कागज़ की नाँव कभी
बचपन वो मासूम भुला पायेगा कैसे गाँव कभी
फिर भी छलके अश्क नहीं यह भी तो एक कुर्बानी है
सीनों पर पत्थर रखनें वालों नें हार न मानी है
पूत सभी न्योछावर धरती पर यह मन में ठानी है
पर रक्षा तक नहीं जीत कुछ और जीतकर लानी है
पूत जीत दुश्मन की धरती माँ बैठी आशाओं में
खुद बढ़कर प्रहार करो स्वर गूंजा सभी दिशाओं में
वही पुराना आत्मसमर्पण फिर से करवाना होगा
समरभूमि की गौरवगाथा को फिर दोहराना होगा
जीती हुई जीत को अबकी बार न लौटाना होगा
रणभूमि को बलि चढानी होगी शत्रु के सर से
नाश समूल न हो तब तक नहीं रक्त रिक्त हो खप्पर से
निमिष- निमिष होगी बरसानी आग धधकते अम्बर से
धारण कर लो चक्र सुदर्शन कह दो यह मुरलीधर से
हुक्म मिले तो अपनी सेना सब कर के दिखला देगी
दुश्मन की सेना के नाकों में नकेल डलवा देगी
बूँद बूँद का बदला लेकर धरती लाल बना देगी
दुश्मन देश का इस धरती से, नामों निशाँ मिटा देगी
यह विश्वास दिखाना है दिल्ली बैठे आकाओं ने
खुद बढ़कर प्रहार करो स्वर गूंजा सभी दिशाओं में
घनश्याम वशिष्ठ
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