जब निगाहें मिलीं, लब फडकने लगे
कहते- कहते रुके, स्वर अटकनें लगे
ये मोहब्बत नहीं और क्या है के जब
दो जवां दिल मिले और धड़कनें लगे
जब कि डाली से कलियाँ चटकनें लगें
वों ना हों तो नज़र को खटकनें लगें
लाख खुशियाँ ज़माना करे गर नज़र
सोच उनकी तरफ ही भटकनें लगे
लोग कहते हमें, हम बहकनें लगे
जाम अधरों से पहले छ्लक्नें लगे
हाथ अक्सर यूँ ही कंपकपाते है जब
अक्स जामों में उनका झलकनें लगे
मन उमंगों तरंगों में रंगने लगे
कल्पनाओं में सपनें से जगनें लगें
हाथ प्रीतम का जब हाथ में हों तो फिर
जेठ का ताप सावन सा लगनें लगे
बिन कहे बिन सुने गीत बजनें लगे
तन नज़र कि छुवन से लरजनें लगे
अब जुबां कि ज़रूरत कहाँ रह गई
हम निगाहों की भाषा समझनें लगे
आप नींदों में उठकर जो चलनें लगे
आप जागे मिलन को मचलनें लगे
बात सारे ज़मानें पे खुल ही गई
आप सजधज के घर से निकलनें लगे
घनश्याम वशिष्ठ
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