Monday 4 July 2011

मधुशाला की मधुशाला

मधुशाला की मधुशाला 

प्रखर प्रशस्तर रवि किरणों नें 
तन को बिंध- बिंध डाला 
चाहत के सागर से निकली 
मात्र बूंद भर ही हाला
अभी हारकर पीठ मगर क्यूँ 
सागर सम्मुख कर बैठा 
अभी डुबो सर्वस्व स्वंय का 
सुगम नहीं है मधुशाला 

घनश्याम वशिष्ठ 

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