Tuesday 31 May 2011

सभी करते सलाम कुर्सी को .......

सभी करते सलाम कुर्सी को ......
औरत हों मर्द ख़ास ओ आम कुर्सी को
सभी करते सलाम कुर्सी को

किसी भी एक की कुर्सी ये हो न पायी है
बड़ी दिलफेंक बहुतों से आशनाई है
मिजाज़ में भरी इसके तो बेवफाई है
दिल ओ गैरत पे आशिकों ने चोट खाई है
सब ही  वाकिफ हैं इसकी फितरत से
फिर भी देतें है दाम कुर्सी को

कुर्सियाँ वो जो सहारों पे खडी होतीं है
न भरोसा कोई कमज़ोर कड़ी होती हैं
रुकी समझोंतों पे शर्तों पे अड़ी होती है
गैर के हाथों में मजबूर बड़ी होती है 
पांए बिकतें है चुप से खिसक जाते है 
रखो कसकर लगाम कुर्सी को

ढली जीवन की छाँव तो क्या है 
कब्र में लटके पांव तो क्या है 
हमने खेला ये दाव तो क्या है
हमको भी है लगाव तो क्या है
दिल ये नाज़ुक सा इसको सौंपा  है
सौंपी है ढलती छाँव कुर्सी को

औरत हों मर्द ख़ास ओ आम कुर्सी को
सभी करते सलाम कुर्सी को

-घनश्याम वशिष्ठ

Wednesday 25 May 2011

हौसले बढ़ते गए...........

हौसले बढ़ते  गए...........

हम निडर होकर जभी हालात से लड़ते गए
जीत की हसरत जगी और हौसले बढ़ते गए

-घनश्याम वशिष्ठ

Sunday 22 May 2011

श्री राजीव गाँधी की स्मृति में ...........

श्री राजीव गाँधी की स्मृति में ...........

दूर तलक भू पर अंधियारा 
टूट गिरा जो आशा तारा 
शून्य विपिन में कहाँ खो गया 
सूरज लम्बी तान सो गया 

काल चक्र का झंझावत था 
वह कैसा निर्मम स्वागत था 
दिव्यदीप अवसान हो गया 
सूरज लम्बी तान सो गया 

स्वपन समृधि टूटे माणिक
गहन उदासी नभ आच्छादित 
युग प्रवर्तक दूर जो गया 
सूरज लम्बी तान सो गया 

-घनश्याम वशिष्ठ 


Friday 20 May 2011

आई .एस.आई .चीफ पाशा के बयान का जबाब...

आई .एस.आई .चीफ पाशा  के बयान का जबाब......

पाक  क्या खाकर हमारे शौर्य से टकराएगा 
संतरे सा छील देंगे फांक सा रह जाएगा 

-घनश्याम वशिष्ठ 

Wednesday 18 May 2011

कल हथेली पर सुखद सपनें बुने

कल हथेली पर सुखद सपनें बुने 

कल हथेली पर सुखद सपनें बुने 
हो गये गम के वही बादल घने 

जबकि हम पर थीं बहारें मेहरबाँ
जो चुने, हर फूल कागज़ के चुने 

जिनसे थी उम्मीद हर इमदाद की 
चल दिए वह ही थमाकर झुनझुनें 

यार, तुंमसे क्या करें शिकवा गिला 
कुछ रहे ना जब वफ़ा के मायने 

साथ जब चलती नहीं परछाईयाँ 
साथ क्या देंगे भला फिर आईने 

मौत पर मातम मनाने को मेरी 
गम अकेलापन ही आये दो जने 

-घनश्याम वशिष्ठ  

Tuesday 17 May 2011

दे नजारों को नज़र वो मन गया

दे नजारों को नज़र वो मन गया 

दे नजारों को नज़र वो मन गया 
खूबसूरत अक्स का दर्पण गया 

दोष देती माँ, कसाई पेट को -
पालनें में, लाल का बचपन गया 

जल उठे  चूल्हा. फक़त इस आग में 
मास भर की आस का वेतन गया

संग हैं अब सलवटें ही सेज पर 
फाइलों की मेज़ पर यौवन गया 

यह भी अपना वह  भी अपना हो सके 
बस, इसी चाहत में अपनापन गया 

-घनश्याम वशिष्ठ 




Monday 16 May 2011

चिता से वीर शहीदों की रज अंजली भरकर लाया हूँ

चिता से वीर शहीदों की रज  अंजली भरकर लाया हूँ 

नहीं जिन्होनें खून का कतरा एक देश के नाम किया 
नहीं जिन्होनें गर्व करे माटी कुछ ऐसा काम किया 
नहीं जिन्होंने आज़ादी यह संघर्षों से पायी हँ
नहीं जिन्होनें सरहद पर दुश्मन की गोली खाई हँ 
नहीं जिन्होनें घाव की पीढा वीरों जैसी झेली हँ 
नहीं जिन्होनें खूनी होली दीवानों सी खेली हँ 
नहीं जिन्होनें अपना कोई लाल ज्वाल में झौंका हँ 
नहीं जिन्होनें तूफानों को बढ़ सीनों पर रोका हँ 
और वही जो खुद की रक्षा खुद ही ना कर पातें हँ 
जैड सुरक्षा के घेरे में रहते जान बचातें हँ 
भाषण के ये मेघ भला तोपों की गर्जन क्या जानें 
वैभव के चमकीले नभ शोलों की भडकन क्या जानें 
इन वीरों को तोपों के दर्शन करवाकर तो देखो 
कभी बलात समर भूमीं में इनको लाकर तो देखो 
मारे भय के रक्तिम मुखमंडल पीले हो जायेंगे 
तने हुए भ्रकुटी तंतु पल में ढीले हो जायेंगे 
फिर भी आखिर वीरोचित सम्मान यही पा जातें हँ 
कायर लोगों की खातिर हम क्यूँ विरुदावली गातें हँ 
कायर ऐसे लोग कहो क्यूँ देश भक्त कहलातें हँ 
सच्चे वीर हिंद के यादों में धुंधलाते जातें हँ 
देश प्रेम की परिमल से परिचय करवाने आया हूँ 
चिता से वीर शहीदों की रज अंजलि भर कर लाया हूँ

इस रज़ में हँ रची बसी परिमल बारूदी गोली की 
याद उकेरे मानस पट पर समर पर्व की होली की 
यह पावन परिमल क्रान्ति की बहती अविरल धारा हँ 
आज़ादी का हर आन्दोलन इसमें डूबा सारा हँ   
यह परिमल महकी थी फांसी  के फंदे की सांसों में 
भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु के पावन प्रयासों में 
बिस्मिल, लाहिड़ी, ऊधमसिंह इस परिमल के अणु रूप हुए 
घन आच्छादित आज़ादी की खातिर निर्मल धूप हुए 
नेताजी, आज़ाद सरीखे हर जीवट जांबाजों से 
यह परिमल बन पवन बही  थी जयहिन्द की आवाजों में 
रानी झांसी समर भूमिं में खेल  शौर्य का जो खेली 
उसकी रक्त सुवास बहिन बनकर इस परिमल ने ले ली 
महाराणा ने वीर शिवाजी ने जो था संघर्ष किया 
उसी शौर्य ने इस परिमल को विस्तृत नभ उत्कर्ष दिया  
सीमाओं से चली हवा भरकर परिमल बलिदानों की 
जगा गयी हिय में भूली सी यादें वीर जवानों की 
देश प्रेम के पावन पथ पर जिसने रुधिर बहाया हँ 
उसनें तन की रज़-रज़ से इस परिमल को महकाया हँ 
साँस साँस में भर लो सांसों को महकाने आया हूँ 
चिता से वीर शहीदों की रज अंजलि भर कर लाया हूँ

उर में ज्वाल उठा हँ भारी भाव हुयें हँ दग्ध मेरे 
देश वासियों निमित तुम्हारे संप्रेषित हँ शब्द मेरे 
हम जयघोष करें उनकी जो लिप्त रहे घोटालों में 
राजनीति के दुष्चक्रों में, कुत्सित चाल- कुचालों में 
व्यथा यही हँ उलटी गंगा बहती हँ सम्मानों की 
नहीं चिताओं पर मेले जब लगते वीर जवानों की 
तब आहत अन्तर होता हँ खून खौलनें लगता हँ 
मूढ़ व्यवस्था पर कडवे शब्द कवि बोलनें लगता हँ 
नहीं सूखनें देना हँ यदि देश प्रेम की धारा को 
हो जाओ आज़ाद तोड़कर दुर्बल मन की कारा को 
लोकतंत्र हँ खुद को जानों प्रथम हो तुम मतदाता हो 
सत्ता धारी कृति तुम्हारी तुम सत्ता निर्माता हो 
उन्हें हटाओ देशद्रोह में लिप्त जिन्हें भी पाया हँ 
पांच साल का कोई पट्टा नहीं लिखा कर आया हँ 
नेताओं को छोडो पहले वीरों का सम्मान करो 
इनका ही जयघोष करो इनका ही गौरवगान करो 
सागर मंथन से निकले यह अमृत कलश हमारें हँ 
शौर्य अगर ज़िंदा हँ तो ज़िंदा रहतीं सरकारें हँ 
जागो -जागो देशवासियों तुम्हें जगानें आया हूँ 
चिता से वीर शहीदों की रज अंजलि भर कर लाया हूँ 

-घनश्याम वशिष्ठ 


















































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































































Saturday 14 May 2011

मयकदा हो गयी .........

मयकदा हो गयी .........

मयकदा हो गयी, सांझ की नम हवा
बेख्याली में तन को, तुम्हारे छुवा
सांस लेते ही गर हम बहकनें लगे
क्यूँ जमाने ने हमको शराबी कहा

-घनश्याम वशिष्ठ

Monday 9 May 2011

इधर देखूं ..उधर देखूं ......

इधर देखूं ..उधर देखूं ......

तुम्हें देखूं मैं रह-रह
चोर नज़रों से मगर देखूं
कहीं ना भांप ले नज़रें
ज़माने की नज़र देखूं
मेरी इस कशमकश में हो गयी
नज़रों से तुम ओझल
बड़ी बेचैन नज़रों से
इधर देखूं उधर देखूं 

घनश्याम वशिष्ठ

Saturday 7 May 2011

तू मेरा नाम ले लेना........

 तू मेरा नाम ले लेना........   
न मैं घर में जगह चाहूँ
न मैं उर में जगह चाहूँ
मेरी चाहत हँ इतनी सी
तेरी यादों में रह पाऊं
न बदले में वफ़ा दो तो
यही अहसान कर देना
कहीं जिकरे वफ़ा हो तो
तू मेरा नाम ले लेना

घनश्याम वशिष्ठ

Wednesday 4 May 2011

सत्ता की चाह .....

सत्ता की चाह .....

सत्ता की मदमय हाला से 
बहुतों का प्यासा प्याला 
अपने प्याले में हाला की 
सोचे हर पीने वाला 
धन से, बल से, तिकड़म- छल से 
जैसे भी हो मिल जाए 
सत्ता के ठेकों की हाला 
बली- नशीली मधुशाला 

घनश्याम वशिष्ठ 

Tuesday 3 May 2011

मारा गया लादेन...........

मारा गया लादेन...........

फूट गया आखिर पापों से 
भरा बुराई का प्याला 
नहीं बहे अब मदिरालय में 
विषधर के विष की हाला 
यही ध्यान रखना है प्रहरी 
अब पूरी मुस्तैदी से 
रहें निरापद पीनें वाले 
रहे सुरक्षित मधुशाला 

घनश्याम वशिष्ठ