Tuesday 31 May 2011

सभी करते सलाम कुर्सी को .......

सभी करते सलाम कुर्सी को ......
औरत हों मर्द ख़ास ओ आम कुर्सी को
सभी करते सलाम कुर्सी को

किसी भी एक की कुर्सी ये हो न पायी है
बड़ी दिलफेंक बहुतों से आशनाई है
मिजाज़ में भरी इसके तो बेवफाई है
दिल ओ गैरत पे आशिकों ने चोट खाई है
सब ही  वाकिफ हैं इसकी फितरत से
फिर भी देतें है दाम कुर्सी को

कुर्सियाँ वो जो सहारों पे खडी होतीं है
न भरोसा कोई कमज़ोर कड़ी होती हैं
रुकी समझोंतों पे शर्तों पे अड़ी होती है
गैर के हाथों में मजबूर बड़ी होती है 
पांए बिकतें है चुप से खिसक जाते है 
रखो कसकर लगाम कुर्सी को

ढली जीवन की छाँव तो क्या है 
कब्र में लटके पांव तो क्या है 
हमने खेला ये दाव तो क्या है
हमको भी है लगाव तो क्या है
दिल ये नाज़ुक सा इसको सौंपा  है
सौंपी है ढलती छाँव कुर्सी को

औरत हों मर्द ख़ास ओ आम कुर्सी को
सभी करते सलाम कुर्सी को

-घनश्याम वशिष्ठ

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