दे नजारों को नज़र वो मन गया
दे नजारों को नज़र वो मन गया
खूबसूरत अक्स का दर्पण गया
दोष देती माँ, कसाई पेट को -
पालनें में, लाल का बचपन गया
जल उठे चूल्हा. फक़त इस आग में
मास भर की आस का वेतन गया
संग हैं अब सलवटें ही सेज पर
फाइलों की मेज़ पर यौवन गया
यह भी अपना वह भी अपना हो सके
बस, इसी चाहत में अपनापन गया
-घनश्याम वशिष्ठ
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