Saturday 23 April 2011

नाम मिटा दो उग्रवाद फैलाते हर शैतान का

नाम मिटा दो उग्रवाद फैलाते हर शैतान का 

उग्रवाद ने घात हमारे ऊपर बारम्बार किया
प्रेम पुजारी बने रहे हमने न पलट प्रहार किया
दुस्साहस कर दुश्मन ने वारों के ऊपर वार किया
प्रश्न ऊठेगा पौरुष पर यदि अब भी ना प्रतिकार किया
शठ समझे शठता की भाषा, उठो उसे समझाने को
तत्पर लाखों राम खड़े, मत रोको धनुष उठाने दो
छोडो गीत प्रीत के मुझको गीत जंग के गाने दो
उग्रवाद जंगल है  मुझको दावानल धधकाने दो
अक्षर अक्षर आहुति को आतुर इस अभियान का
नाम मिटा दो उग्रवाद फैलाते हर शैतान का

कब तक गांधी की लाठी से पाषाणों को तोड़ेंगे
कब तक निर्मम हत्यारों को खुला देश में छोड़ेंगे
कब तक भारतवासी इस आतंकवाद को झेलेंगे
कब तक आतंकी भारत में खेल खून का खेलेंगे
कब तक बिना समर के सीमा प्रहरी जान गवाएंगे
कब तक हमले सह सह कर भी मौन साध रह जायेंगे
कब तक सिंह समाज सियारों की भाषा में बोलेगा
कब तक नहीं खून अर्जुन का सुत वधिकों पर खोलेगा
हमले पर हमले कर बैरी ने हमको ललकारा है 
प्रतिशोध लेना ही अब न्यायोचित धर्म हमारा है 
भली बुरी छोडो  जैसी भी  होगी  अब देखी जाए
संयम की सामर्थ्य कहीं कायरता ना लेखी जाए
उस विष का क्या मोल गंध ही जिसकी न भयग्रस्त करे
वही शोर्य सम्मानित होता जो शत्रु को त्रस्त करे
दुश्मन का दुर्भाग्य दिवाकर हो जैसे अवसान का

नाम मिटा दो उग्रवाद फैलाते हर शैतान का

क्या दुनिया में हमहि  बचे है वहशत का विष चखने को 
अमेरिका  किस मुख  से कहता हमको संयम रखने को 
इतना ही संयम वाला था तो क्यूँ ले हथियार उठा 
एक घाव भी ना सह पाया विषधर सा फुंफकार उठा 
भीषण बदला लेकर छोड़ा जिसने तालिबानों से 
वह अमेरिका  मांप रहा भारत को किन पैमानों से 
उजले संकल्पों पर छाया कुटिल नीति का कोहरा है  
उसका मुंह मत ताको उसका मांप दंड ही दौहरा है  
विज्ञ जनों ने सत्य कहा है  कभी गैर के कांधों  पर 
नहीं लक्ष्य संधान सफल हो स्वंम राम हो खड़े अगर
अपने घर की आग बुझेगी अपने ही पुरुषार्थ से
अटल सत्य है मुंह मत मोड़ो जुडो स्वंम के स्वार्थ से
निजी लड़ाई लड़नी पड़ती है  निज के बलबूते पर
मत ताको संयुक्त राष्ट्र को, धरो पाँव के जूते पर
नहीं चाहिए हमको कोई, नेता सकल जहान का 
नाम मिटा दो उग्रवाद फैलाते हर शैतान का


सारी दुनिया बदला लेती है, लेगी, लेती आई
नहीं कहानी नयी कोई जो अपनी सत्ता संकुचाई
अमेरिका ने बदला लेकर तालिबान को ध्वस्त किया
तटबंधों को तोड़ो इस मिथ ने जब पथ प्रशस्थ किया
सत्ताधीशो अब तो छोडो मन की दीन विवशता को
स्वंम स्वतंत्र, स्वन्मभु हो फिर  क्यूँ ढोते परवशता को
दुश्मन ना वश में आयेगा मृदुल, मधुर मनुहारों से
लातों का है भूत इसे तुम, रोंदो पद प्रहारों से
अब प्रतिकार प्रहार प्रश्न बन गया मान सम्मान का
नाम मिटा दो उग्रवाद फैलाते हर शैतान का

-घनश्याम वशिष्ठ





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