Monday 1 August 2011

चिंता ...

कादम्बिनी के प्रवेश स्तम्भ में प्रकाशित  
मेरी चार कविताएं  .....(एक )

चिंता ...

मेरे अंतर में ,
एक कीटाणु पल रहा है .
जो , मेरा खून चूसता है.
कुछ समय बाद ही ,
एक फ़ौज बन गया, 
निरंतर बढती हुई ,
जो हर पल बढती जा रही है 
और .....
बढती जाएगी 
अतीत / वर्तमान / भविष्य 
लांघती , क्रमानुसार 
मेरे बढ़ने के साथ -साथ 
सोचता हूँ ..
मेरा बढना ही क्यों न रुक गया 
जो ये ,
कीटाणु तो न पनपते 

घनश्याम वशिष्ठ 


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