Thursday 29 September 2011

स्वप्न  सिंहासन बैठ धरा के 
कंटक कहाँ सुहाते है 
आज स्मृति में वही पुराने 
दृश्य उभर कर आते है 

तने हुए तरु के तन पर थे 
हरित पात उन्मादित से 
गिरे धरा पर इधर उधर हो 
पतझड़ में विस्थापित से 
दिशा हीन अस्तित्व हीन 
पीछे परिचय रह जाते हैं 

चिर शिशिर शाप भोगे रजनी 
श्रृंगार टूट गिरते तारक 
चपला मचली सौभाग्य चिन्ह 
कुमकुम की धधक उठी पावक 
पलक झपकते प्रतिबिम्ब क्यूँ 
पूनम में धुंधलाते है 

आज स्मृति में वही पुराने 
दृश्य उभर कर आते हैं 

घनश्याम वशिष्ठ  

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