Sunday, 31 July 2011

दोस्त सभी , पाकर किनारों को 
भूल गए मझधार में फसे यारों को 

घनश्याम वशिष्ठ
 

Saturday, 30 July 2011

उदासी छोड़कर ......

उदासी  छोड़कर ......

है  हमें अहसास, क्या खोया उदासी  ओढ़कर 
हो गया अहसास, क्या पाया उदासी छोड़कर 

घनश्याम वशिष्ठ

Thursday, 28 July 2011

कारगिल के बाद........

 कारगिल विजय दिवस पर विशेष ..............
कारगिल के बाद........

तुमनें शीश झुकाया हमनें, माफ़ किया और छोड़ दिया 
अबकी बार समर का रास्ता ,अमन के रस्ते मोड़ दिया 
अबकी बार न ऐसा होगा ,दुस्साहस ना करना तुम 
खुली  चुनौती  देता  हूँ ,मेरे शब्दों  से  डरना  तुम
अबकी बार उठाया सर गर , सर धड से कट जाएगा 
अपना  नहीं  रहेगा  कोई, जो   दफनाने   आयेगा 
हम हिम माला के निर्झर, जिस पल हिलोर में आएंगे
दुश्मन  की धरती पर जाकर , प्रलय दूत बन जाएंगे 
कुटिल उम्मीदों पर पानी, फिर फिरेगा फिर से भागोगे 
डूब  मरोगे  पानी  में , और  पानी  तक  ना  मांगोगे 
राजनीति की महत्वाकांक्षाओं की बलि चढोगे तुम 
हिन्दुस्तानी सेनाओं  से , आकर अगर लड़ोगे तुम 
हम गौतम के वंशज है , हम पार्थ श्रेष्ठ धनुधारी है 
महावीर से प्रेम पुजारी,  शिव  से  प्रलयंकारी  है 
हम  लाठी  वाले हाथों में , जब संगीन  उठाते  है 
दुनिया देख चुकी गांधी से, आंधी हम हो जाते है 
क्या खाकर सह पाओगे, आंधी के विकट थपेड़ों को 
भुगत  चुके है  जो  पहले, पूछो  उन  बूढ़े  पेढों  को 
बतलायेंगे वही, जिन्होंने  कल  हथियार गिराए थे 
आत्मसमर्पण किया ,हमारे सम्मुख शीश नवाए थे 
कायर कोखों में पलकर कहीं , शेर कोई  हो पाता है 
गीदड़  से  पैदा  होने  वाला  गीदड़  कहलाता  है 
गीदड़ हो तुम, गीदड़ की ही खाल में रहकर बात करो 
आत्मघात है  शेर से  लड़ना, ऐसे  न  अवदात करो 
आत्मघात  करने वालो  हमसे क्यूँ  लड़ने आते  हो 
चुल्लू भर पानी में क्यों ना डूब के तुम मर जाते हो 
अबकी बार समझ लो सीधी बात जो घात लगाओगे 
खुद का  और वजूद  पाक  का  सांस तोड़ता पाओगे 

मेरे नहीं  है , वाणी  में जो , कण बारूदी आए  है 
मैंने तो एक सैनिक के दिल के उदगार सुनाए है

मन में टीस लिए सैनिक  था ,सीमा पर मुस्तैद खडा 
एक-एक पल समर का ,यादों के दर्पण में देख रहा 
देख रहा  सरहद पर  अब  तक ,निशाँ  खून  के ताज़े है 
कण -कण से अब भी जय हिंद की, गूँज रही आवाजें है 
लहू हुआ लावा जब लिखने  बैठा खुनी पाती वो 
मसि बनाया रक्त शहीदी, पाती वसुधा छाती को 
एक- एक अक्षर  पर उसका  वहीँ  कलेजा  खौल रहा 
देख हृदय के भाव उसी पल दिल अम्बर का डौल रहा 
रक्त भरी आँखों  में उस पल  थी बीते   कल की यादें 
खून की होली खेल रहे, उस मौसम, उस पल की यादें  
चित्र सभी चलचित्र की भांति दो आँखों में घूम   गए 
बलिदानी शव अंतिम क्षण में देश की माती चूम गए 
जोशीले वे  वीर  हिंद के दुश्मन  पर चढ़ते जाते 
होड़ लगाकर मौत का दामन छूनें को बढ़ते जाते 
उस पल आर-पार की अंतिम जंग का ज़ज्बा आया था 
प्रतिशोध   की  ज्वाला  ने  ,लहू  को  अंगार  बनाया था 
आया था तूफ़ान रक्त का, लाल हुई श्यामल माटी
शेरों की आँखों में उस पल ,यम देखा कांपी घाटी 
पेड़ों के पत्ते भी उस पल भय खाकर निस्पंदित थे 
अचल खड़े हिम पर्वत के सारे पाषाण अचंभित थे 
विस्फोटों की गर्मी थी पर बर्फ पिंघलना भूल गई 
शोलों के धुंए थे लेकिन सांझ थी ढलना भूल गई 
स्थिर हुआ सूरज किन्तु किरणों को ताब न ला पाया 
वक़्त रुका ऐसा के पवन का आंचल तक ना लहराया 
वातावरण था चुप्पी साधे देख रहा विकराल समर 
हिन्दुस्तानी  सेना  के जांबाजों  का वह शोर्य प्रखर 
घाव छुपाकर सागर की लहरों से बढ़ते जाते थे 
पीड़ा को पीकर साथी से नज़र मिली मुस्काते थे 
बीच-बीच में शव गिरते पर टुकड़ी टूट न पाती थी 
तन को छोड़ आत्मा  टुकड़ी में जाकर मिल जाती थी 

नहीं कल्पना सागर मंथन से स्वर ऐसे पाए है 
मैनें तो एक सैनिक के दिल के उदगार सुनाए है

युद्ध  बंद होने का जब संदेशा दिल्ली से आया 
आगे बढती सेना के चेहरों पर मातम सा छाया 
साथी जो खोये उनका प्रतिशोध न पूरा कर पाए 
दिल्ली  वालों  ने  मंसूबे  तोड़े ,लौटे  घर  आए
यारों की वहां चिता सजी थी द्रवित हुआ मन भर आया 
एक  बार  फिर  आँखों  में  बदले  का  भाव उतर आया 
हवन कुंड की  अग्नि थी,  लपटें थी नहीं चिताओं की 
अरुण धधकते  अंगारों सी  आँखें  थी  माताओं  की 
कहती, लगती ,आग जिगर की यूँ ही नहीं बुझाना तुम 
प्रतिशोध  की  आहुति  से  और  प्रचंड  बनाना  तुम 
अबकी बार महा रण होगा महा यज्ञ यह करना है 
अबकी बार समझ लो निर्णायक रण हमको लड़ना है 
अबकी बार हुआ रण तो बातों से ना रुक पायेगा 
अबकी  बार  न  संदेशा  कोई  दिल्ली  से आयेगा 
अबकी बार न हस्तक्षेप अमरीका का सह पायेंगे 
अबकी बार ना माफ़ करें, न दरियादिली दिखांएंगे 
अबकी बार न समझोंतों से कदम ठिठकनें पांयेंगे
सदा सदा के लिए ये किस्सा अबके हम निबटाएंगे 
दिल्लीवालो बात सुनो ,समझो दिल में बैठा लो तुम 
वीर शहीदों के बलिदानों  पर  यूँ खाक न डालो तुम 
लहू बहाकर हम अपना जब जंग जीतकर आते हैं 
हमसे  ज्यादा  आप  दुश्मनों  पर उदार हो जातें हैं 
हम  जीतेंगे  और जीत को  यूँ ही तुम  लौटाओगे 
बार बार यह ही होगा इसको तुम रोक न पाओगे 
अगर रोकना है इसको तो जीत  को  ना  लौटाओ  तुम 
दुश्मन को अहसास हो ऐसी हार का मज़ा चखाओ तुम 
दुस्साहस की कीमत पर वह जब भी खंडित होएगा
सोचेगा  सौ  बार  प्रथम  जब  बीज  युद्ध  के बोएगा
 फिर ना उसकी आह पड़ेगी ,फिर ना लड़ने आयेगा 
उसको हो मालूम वो खंडित- खंडित होता  जाएगा 

मैंने ना अग्नि दिखलाई ना शोले भड़काए हैं 
मैंने तो एक सैनिक के दिल के उदगार सुनाए है 

घनश्याम वशिष्ठ 

Tuesday, 26 July 2011

लोर्ड्स में भारत की हार .....

लोर्ड्स में भारत की हार .....

हसरत थी यह लोर्ड्स में ,पड़ें गले में हार 
पर पासा  उलटा  पडा, पड़ी  गले  में हार

घनश्याम वशिष्ठ





Monday, 25 July 2011

गम में भी मुस्काकर देखो.............

क्यूँ अपनी किस्मत पे रोता
गम का बोझा दिल पर ढोता
गम जीवन का सत्य सास्वत
इसको गले लगाकर देखो
गम में भी मुस्काकर देखो


घनश्याम वशिष्ठ

Saturday, 23 July 2011

शहीद चंद्रशेखर आज़ाद के जन्म दिन पर विशेष ......



ज़िंदा रहे जिंदादिली ,प्रेरित करे यह ज़िन्दगी
संघर्ष में ज़िंदा जले ,  शोलों से आज़ादी मिली

वो दीप थे  प्रकाश  के . नक्षत्र  थे  आकाश   के
उनको सदा सादर नमन, माली थे महकाया चमन

पीछे  हटे  ना  वक़्त  पे, सींचा  धरा  को  रक्त  से 
कुर्बानियों  की  प्रेरणा  के  फूल  बिखरे  हर  गली
संघर्ष  में  ज़िंदा  जले  ,शोलों  से  आजादी   मिली

देकर गए स्वामित्व वो ,अधिकार औ दायित्व वो
लहराए चिर  आकाश में ,  ध्वज हर्ष में उल्लास में
थाती  की रक्षा कर  सकें,   मरना  पड़े तो  मर सकें  

होगी  शहीदों  के  प्रति ,  सच्ची  यही  श्रधांजली  
संघर्ष  में  ज़िंदा  जले  , शोलों  से  आज़ादी मिली  

घनश्याम वशिष्ठ

Friday, 22 July 2011

कारगिल के बाद ....खुद बढ़कर प्रहार करो ...........

कारगिल के बाद ....खुद बढ़कर प्रहार करो ...........

कब तक संयम रक्खेंगे रहकर अपनी सीमाओं में 
कब तक रहें नियंत्रित सरहद पर खींची रेखाओं में 
सब्र का प्याला छलक गया लहु लावा हुआ शिराओं में
खुद बढ़कर  प्रहार करो स्वर गूंजा सभी दिशाओं में 

उनसे पूछो जिसनें अपना लाल देश पर खोया है 
सीना गौरव  से फूला पर दिल अन्दर से रोया है 
जिसने निज सौभाग्य चिन्ह कुमकुम केशों से धोया है 
सूनी मांग सुहाग सामने चिर निंद्रा में सोया है 
तार- तार होकर सिंगार सब गिरे ज़मीं पर टूट गए 
सूनी आँखों के स्वप्निल पल पथ  में पीछे छुट गए
काल चक्र के चोर  स्नेह के  तार रेश्मीं लूट गए 
पकड़ कलाई बहना कहती, भइया मुझ से रूठ गए 
जिस धरती ने हरियाली खुशहाली जन जन में बांटी 
उसकी छाती उसके ही बेटों की लाशों से पाटी
इतनी भारी कीमत देकर बचा सके केवल घाटी 
इतने पर संतोष किया तो हों गयी शर्मिन्दा माटी

फडकन को महसूस करो थामें संगीन भुजाओं में 
खुद बढ़कर  प्रहार करो स्वर गूंजा  सभी दिशाओं में

जो सरहद पर गिरा खून वह खून हमारा अपना था
पथ पर बाट जोहती सिन्दूरी आँखों का सपना था
दो बूढ़े नयनों की ज्योति एक दिन उसको बनना था
भाई डोली बिदा करे क्या यह बहना का मन ना था
भुला सकेगी पगडंडी क्या चूमें थे जो पांव कभी
पेढों ने दी थी बचपन को संरक्षण की छांव कभी
ताल के उर पर बैठा था जो ले कागज़ की नाँव कभी
बचपन वो मासूम भुला  पायेगा कैसे गाँव कभी
फिर भी छलके अश्क नहीं यह भी तो एक कुर्बानी है
सीनों पर पत्थर रखनें वालों नें हार न मानी है
पूत सभी न्योछावर धरती पर यह मन में ठानी है
पर रक्षा तक नहीं जीत कुछ और जीतकर लानी है

पूत जीत दुश्मन की धरती माँ बैठी आशाओं में
खुद बढ़कर प्रहार करो स्वर गूंजा सभी दिशाओं में

बीते हुए काल को फिर से लौटा कर लाना होगा
वही पुराना आत्मसमर्पण फिर से  करवाना होगा
समरभूमि की गौरवगाथा को फिर दोहराना होगा
जीती हुई जीत को अबकी बार न लौटाना होगा
रणभूमि को बलि चढानी होगी शत्रु के सर से
नाश समूल न हो तब तक नहीं रक्त रिक्त हो खप्पर से
निमिष- निमिष होगी बरसानी आग धधकते अम्बर से
धारण कर लो चक्र सुदर्शन कह दो यह मुरलीधर से
हुक्म मिले तो अपनी सेना सब कर के दिखला देगी
दुश्मन की सेना के नाकों में नकेल डलवा देगी
बूँद बूँद का बदला लेकर धरती लाल बना देगी
दुश्मन देश का इस धरती से, नामों निशाँ  मिटा देगी

यह विश्वास दिखाना है दिल्ली बैठे आकाओं ने
खुद बढ़कर प्रहार करो स्वर गूंजा सभी दिशाओं में

घनश्याम वशिष्ठ


Tuesday, 19 July 2011

बेबस हों गए.............

बेबस हों गए.............

लोग कहतें हैं ये हमसे, हम भंवर में खो गए 
हम ये कहते  हैं किनारे ,दूर हमसे हों गए 
हाथ हमनें भी बहुत मारे थे लेकिन क्या करें 
रूठ हमसे जब गयी किस्मत तो बेबस हों गए 

घनश्याम वशिष्ठ

Monday, 18 July 2011

हद कर दी बेशर्मों ने .............

हद कर दी बेशर्मों ने .............
विस्फोटों के बाद जब, देश हुआ ग़मगीन
पर कुछ नेता देश के ,  हुए संवेदनहीन
हुए संवेदनहीन  , बची ना  लाज शर्म है
फैशन शो का लुत्फ़ ही इनका राज धर्म है
जिम्मेदारी  भुला, रखी ना गरिमा पद की
वाकई बेशर्मों ने,   बेशर्मी की हद  की

घनश्याम वशिष्ठ

Friday, 15 July 2011

मुंबई पर कायरतापूर्ण हमला ...........

मुंबई पर कायरतापूर्ण हमला ...........




दहशतगर्दों ने मुंबई में फिर घातक विस्फोट किए

हम संयम में बंधे ये जाते हैं चोटों पर चोट किए

कब तक निर्दोषों की लाशों को हम ढोते जायेंगे

कब तक दहशतगर्द यूँ ही दहशतगर्दी फैलायेंगे

ज़ख्म भरें उससे पहले ही हमको कर दिखलाना है

दहशतगर्द ही दहशत खाएं वह माहौल बनाना है

धरो ताक पर नीति- अनीति व् कानूनी तर्कों को

देश के हित में ज़िंदा मत छोडो जहरीले सर्पों को



घनश्याम वशिष्ठ

Tuesday, 12 July 2011

कर गए ख्वाब हमसे शरारत बड़ी .....

कर गए ख्वाब हमसे शरारत बड़ी .....

एक  पर्दानशीं ,सामने  थीं  खड़ी
रुख से पर्दा हटाने लगीं जिस घडी 
क्या थी जल्दी न ठहरे घड़ीभर वहाँ
कर गए ख्वाब हमसे  शरारत बड़ी 

घनश्याम वशिष्ठ 

Monday, 11 July 2011

ज्योति पुंज बन पुनः जला .......

ज्योति  पुंज  बन  पुनः जला .......

बहुत अकेली थीं  राहें पर  , हमराही जब आन मिला 
बुझा हुआ आशा का दीपक ,ज्योति पुंज बन पुनः जला 

पतझड़ कि आंखों के आंसू ,पीकर नव पल्लव फूटे 
हरियाली के आगे ,  वीराने मौसम पीछे छूटे 
डाल -डाल पर महकी परिमल ,डाल -डाल पर फूल खिला 

मदमाया घन सघन गगन ,जब पावस की पाती पाई
वसुधा क्षुधा असीम भरे , लोचन से लखती ललचाई 
दूर क्षितिज पर मिलन कल्पना से मन प्रेम मगन मचला

घनश्याम वशिष्ठ    

Sunday, 10 July 2011

ये मोहब्बत नहीं और क्या है ....

ये मोहब्बत नहीं और क्या है  ....

जब निगाहें मिलीं, लब फडकने लगे 
कहते- कहते रुके, स्वर अटकनें  लगे 
ये मोहब्बत नहीं और क्या है के जब 
दो जवां दिल मिले और धड़कनें लगे 

जब कि डाली से कलियाँ चटकनें लगें 
वों  ना हों तो नज़र को खटकनें लगें 
लाख खुशियाँ  ज़माना करे गर नज़र 
सोच उनकी तरफ ही भटकनें लगे 

लोग कहते हमें, हम बहकनें लगे 
जाम अधरों से पहले छ्लक्नें लगे 
हाथ अक्सर यूँ ही कंपकपाते है जब
अक्स जामों में उनका झलकनें लगे 

मन उमंगों तरंगों में रंगने लगे 
कल्पनाओं में सपनें से जगनें लगें 
हाथ प्रीतम का जब हाथ में हों तो फिर 
जेठ का ताप सावन सा लगनें लगे 

बिन कहे बिन सुने गीत बजनें लगे 
तन नज़र कि छुवन से लरजनें लगे
अब जुबां कि ज़रूरत कहाँ रह गई
हम निगाहों की भाषा समझनें लगे 

आप नींदों में उठकर जो चलनें लगे 
आप जागे मिलन को मचलनें लगे 
बात सारे ज़मानें पे खुल ही गई 
आप सजधज के घर से निकलनें लगे  

घनश्याम वशिष्ठ

Saturday, 9 July 2011

वो पल कहाँ गए ..........

वो पल कहाँ गए ..........

जो मस्त थे, अबोध थे, वो पल कहाँ गए 
खुशहाल थे, संतुष्ट थे, वो कल कहाँ गए 

रिश्ता मधुर भुला दिया चन्दा को जानकर 
बचपन के दिन हथेली से फिसल कहाँ गए 

गर्मी के तेज ताप से तपती वसुंधरा 
हैरान है सावन, मेरे बादल कहाँ गए 

आकर शहर में गाँव की फैली हथेलियाँ 
हलधर तेरे काँधे, तेरे वो हल कहाँ गए 

कंदील को अहसास ज़रा सा भी ना हुआ 
कुछ लम्हे जो थे मोम के, पिंघल कहाँ गए 

निकले थे हाथ थामकर  मंजिल तलाशने 
हमराह रास्ते तेरे, बदल कहाँ गए 

घनश्याम वशिष्ठ

Friday, 8 July 2011

मधुशाला की मधुशाला

मधुशाला की मधुशाला 

आशंकाओं की हाला से 
भरा हुआ जीवन प्याला 
प्रियतम कैसे  कहूँ तुझे
मै आशंकित साकी बाला
कैसे होगा प्रणय निवेदन 
लब लोचन आशंकित हैं 
आशंका के अवनि अम्बर 
आशंका की  मधुशाला 

घनश्याम वशिष्ठ

Thursday, 7 July 2011

जय माता दी  
चलो रे चलो रे चलो 
चलो रे, चलो रे, चलो- चलो रे मात के द्वारे
शेरोंवाली माता सबके बिगड़े काज सँवारे 

कष्ट ज़रा सा सह ले, आगे कष्ट नहीं फिर होगा 
वो उतना सुख पायेगा दुःख, जिसनें जितना भोगा 
माँ की आँखें ऐसे- जैसे ममता के जलधारे 

थककर बैठा है क्यूँ पगले, क्यूँ तू हिम्मत हारा 
वो साहस देगी, तू साँसों में भर ले जयकारा
दिशा- दिशा गुंजायमान हों, बोले जा जयकारे

पापी मन मानुष माँ की ममता को जान गया है 
शरण दायिनी कोमल मन माता को मान गया है
फैला है ममता का आँचल छांवों  में आ जा रे

जो भी माँ के दर पर आया, उसको माँ ने तारा 
सच्चे मन से ध्यान लगा ले, हों जा  माँ का प्यारा 
करुणा सागर माता के कर जीवन की पतवारें
जय माता दी 
घनश्याम वशिष्ठ

 

Wednesday, 6 July 2011

मधुशाला की मधुशाला

मधुशाला की मधुशाला 

नहीं जानता था कल कोई 
कौन जात साकी बाला 
सब एक सुरा रस सरिता 
बहती थी निर्मल हाला 
आरक्षण का द्राक्ष विषैला 
कहाँ मिला कब विलय हुआ 
शनै शनै कब हो गयी दूषित 
समझ न पाई मधुशाला 

घनश्याम वशिष्ठ 

Tuesday, 5 July 2011

मधुशाला की मधुशाला

मधुशाला की मधुशाला 

देख रहा हूँ भरा लबालब 
तेरे  नयनों का प्याला 
साकी किन्तु कठोर छलकने 
-भी नहीं देता रे हाला 
कुछ बूंदें यदि गिरी कपोलों 
-पर, क्या घट, घट जाएगा
खूब बहा ले  पगले तेरा 
हृदय स्वंय है मधुशाला 

घनश्याम वशिष्ठ



Monday, 4 July 2011

मधुशाला की मधुशाला

मधुशाला की मधुशाला 

प्रखर प्रशस्तर रवि किरणों नें 
तन को बिंध- बिंध डाला 
चाहत के सागर से निकली 
मात्र बूंद भर ही हाला
अभी हारकर पीठ मगर क्यूँ 
सागर सम्मुख कर बैठा 
अभी डुबो सर्वस्व स्वंय का 
सुगम नहीं है मधुशाला 

घनश्याम वशिष्ठ 

Sunday, 3 July 2011

मधुशाला की मधुशाला

मधुशाला की मधुशाला 

उठकर बैठ नींद में तूनें 
कितना समय बिता डाला 
आसमान से सपनों सी नहीं 
बरसेगी रिमझिम हाला 
पानी पीने की खातिर भी 
कूप खोदना पड़ता है 
हाला की चाहत है तो फिर 
खोजो श्रम की मधुशाला 

घनश्याम वशिष्ठ 

Friday, 1 July 2011

मधुशाला की मधुशाला

मधुशाला  की  मधुशाला  ..........

सुबह निकल पड़ता है घर से 
लेकर माटी का प्याला 
लौट शाम को घर आता है
पी कर थोड़ी सी हाला 
तृप्त नहीं हो पाते  सपनें 
जीवन के मदिरालय में 
अतृप्ति में जीवन यूँ ही  
कट जाएगा मधुशाला 

घनश्याम वशिष्ठ